नया साल ......नई उम्मीदे....नई दुश्वारिया
( नई बोतल में पुरानी शराब ).
शायद यह वक्त ही है जो अनादी काल से सततता बरकरार रख पूर्ण निरपेक्षता के साथ चले जा रहा है. यद्यपि इसका सभी से नाता है और सभी से पर्याप्त दूरी भी.व्यावहारिकता कि सीख अगर किसी से ली जा सकती है तो वो शायद वह वक्त ही है.लेकिन मनुष्य इतनी निरपेक्षता चाह कर भी अपने में नही ला सकता.लेकिन इन सब बातों के बीच भी वक्त अपनी अविरल गति से चलायमान है.वर्ष,दशक,शताब्दियों के रूप में यह जरूर अपने समग्र रूप का अहसाह कराता रहता है....लेकिन अन्तत तब भी यह अपनी गति से कोई समझौता नही करता हालाकि हमे जरूर अपना मूल्यांकन कर और बेहतर ढंग से हमारे कार्यों को अंजाम देने का जज्बा भरने कि चंद मोहलत देता है चूंकि यह तब ही एकरेखीय गति को अपरिवर्तनीय रूप से कायम रखता है.
इसी क्रम में एक और वर्ष वृहत रूप में नये दशक की अगवानी और प्रकारांतर से बीते वर्ष और दशक कि विदाई हुई है.यह वक्त है बीते वर्ष कि अच्छी-बुरी घटनाओं से सबक लेने का और हर दिन अपने कार्यों को और बेहतरी से अंजाम देने का संकल्प लेने का.सबसे महत्वपूर्ण है पुरानी भूलों कि पुनरावृत्ति से बचना.शायद यह संकल्प हमारे नये साल कि नई उमंगों को नवीन क्षितिज के उत्तुंग तक पहुचने में महती भूमिका निभा सकता है.
बीता साल एक ओर तो सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक रूप से जहां विश्व कि शीर्ष शक्तियों अमेरिका,रूस,चीन,फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष्यों के आगमन और उनके द्वारा सुरक्षा-परिषद में भारत के लिए समर्थन कि बात भी कही इसे जहां विश्व भर में भारत कि बढती हैसीयत के आविर्भाव और खोयी प्रतिष्ठा को पूना संचित करने के रूप में देखा गया . इस क्रम में बीता साल ऐतिहासिक घटनाओं से सराबोर रहा तो वही आम आदमी के नाम सत्ता पर काबिज सरकार का दुसरे पहलू गरीबो के पुरोत्थान, नक्सली वारदातों,कश्मीर घाटी में १०० दिनों से अधिक कि अशांति,सबसे लम्बे संसदीय अवरोध कि पुनरावृत्ति के उपायों के रूप में कोई ठोस पहल कि जाती नही दीख पड़ी.
नये साल कि शुरुआत भी नये राजनीतिक घमासान के बीच हुई है एक ओर जहां सरकार २जी स्पेक्ट्रम,आदर्श और राष्ट्रमंडल खेलों से पहले ही झूंझ रही थी. इसी बीच बोफोर्स का पुराना जिन्न एक बार फिर से मुह बाए खड़ा है तो वही तेलंगाना का मुद्दा भी अब किसी ठोस निर्णय के इन्तजार में.इस रूप में नये साल में काफी कुछ देखने को मिलेगा.खबरनवीसों के लिए काफी कुछ करने को होगा.अगर सरकार किसी बात पर थोड़ा राहत कि सांस ले सकती है तो वो यह कि अभी किसी नये राष्टवादी और रोजगार कि उपलब्धता को लेकर देश का बुद्धिजीवी और शिक्षित बेरोजगार किसी रूप में संघटित होकर कोई नया बखेड़ा या आंदोलन करने नही जा रहा है....लेकिन कब तक..?? नित नये सोपान गढती महंगाई ने सबकी कमर तोड़ कर रख दी ऐसे में यह सुलगती दमित भावनाएं मभी भी आन्दोलन का रूप अख्तियार कर सकता है.आशा है सरकार के खेवनहार इस सम्बन्ध में कोई ठोस पहल करते नजर आयेंगे.... क्योंकि चल रहे आर्थिक युग में आने वाला वक्त पैसे -पैसे को मोहताज लोगो के द्वारा एक विध्वंसक आन्दोलन खड़ा कर देने आहट दे रहा है...और यह आन्दोलन सरकार कि चूले हिलाने को काफी होगा.
Saturday, January 1, 2011
Tuesday, September 14, 2010
पुलिस महकमे में भी है जहनी लोग......
आज चंद घंटो पहले विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन के पास कुछ ऐसा घटा जिसने पुलिस महकमे के बारे में मेरे पूर्वाग्रह को कम किया..........हुआ कुछ यों कि मै मेट्रो स्टेशन के बाहर मै अपनी बस का इंतज़ार कर रहा था.....कि एक दीवान साहब आये और बेहिचक अधिकार स्वरुप वे रेहडी से दालमोठ उठा-उठा खाने लगे....मजे कि बात यह कि दूकान वाला कुछ व्यक्तिगत कारणों से कुछ दूर गया था ( शायद उनको कुछ ज्यादा जोर कि ही भूक लगी थी.)......तभी एक दुसरे साहब आये ....उनकी नेम प्लेट पर प्रधान सिपाही लिखा हुआ था.......उन्होंने उन दीवान महाशय को जमकर लताड़ लगाई.....और नशीहत पेश देने लगे की आप लोगो के कारण ही हमारे महकमे कि इतनी तौहीन होती है.....शर्म आनी चाहिए.....(आगे चंद अनिवार्य पुलिसिया शब्द)....भई वहा खड़े सभी लोगो के लिए मुफ्त का मनोरंजन मिल गया था सो सारे बड़े चाव से सारा प्रकरण देख रहे थे.......खैर जो भी हो .....अब मै कह सकता हु कि पुलिस महकमे में भी जहनी लोग है......खैर इस सारे तमाशे के बीच मेरी कई बसे निकलती रही.... अंतत: कुछ देरी से मै घर पहुच सका.
Wednesday, March 17, 2010
माया की 'माया'
आज जब पूरा देश महंगाई की मार से कराह रहा है.दो जून की रोटी भी मुश्किल से जुटा पा रहा है.ऐसे में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती द्वारा नोटों की माला पहनना शर्मनाक है.देश की आम जनता को एक गाली है.देश का आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य आज उद्योग-धंधो जैसे अनेक बुनियादी मोर्चों पर हासिये पर है.एक मुख्यमंत्री के रूप में मायावती द्वारा उस और कोई ध्यान ही दिया जा रहा है.लगता है धन के मद में मायावती ये भी भूल गयी है कि वो एक सम्वैधानिक पद पर है व उत्तर-प्रदेश कि अवाम के प्रति उनकी पूरी जवाबदेही है.एक और तो बरेली कि जनता दंगों के चलते दहशत में थी उस समय धन का ऐसा भौंडा प्रदर्शन पूरे लोकतंत्र पर तमाचा है.सारे राजनितिक दल इस बात से खासे खफा दीख पड़े व उनके द्वारा इसका विरोध जायज़ है.जहां मायावती अपने को दलित की बेटी बता समाज के दुर्बल वर्ग की सहानुभूति बटोरती रही है,लेकिन अब उनका असली रंग सामने आ रहा है.अपने इस कृत्य पर बजाय माफ़ी मांगने के वो भविष्य में भी ऐसा करने की हुंकार भर रही है.निश्चित रूप से अब लालबहादुर जी जैसे नेता ओझल हो गये है, लेकिन राजनीतिज्ञों में ऐसा नैतिक पतन शोचनीय है.केंद्र सरकार व महामहिम राष्ट्रपति जी से गुजारिश है कि वो इस मामले में हस्तक्षेप करें.
आज जब पूरा देश महंगाई की मार से कराह रहा है.दो जून की रोटी भी मुश्किल से जुटा पा रहा है.ऐसे में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती द्वारा नोटों की माला पहनना शर्मनाक है.देश की आम जनता को एक गाली है.देश का आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य आज उद्योग-धंधो जैसे अनेक बुनियादी मोर्चों पर हासिये पर है.एक मुख्यमंत्री के रूप में मायावती द्वारा उस और कोई ध्यान ही दिया जा रहा है.लगता है धन के मद में मायावती ये भी भूल गयी है कि वो एक सम्वैधानिक पद पर है व उत्तर-प्रदेश कि अवाम के प्रति उनकी पूरी जवाबदेही है.एक और तो बरेली कि जनता दंगों के चलते दहशत में थी उस समय धन का ऐसा भौंडा प्रदर्शन पूरे लोकतंत्र पर तमाचा है.सारे राजनितिक दल इस बात से खासे खफा दीख पड़े व उनके द्वारा इसका विरोध जायज़ है.जहां मायावती अपने को दलित की बेटी बता समाज के दुर्बल वर्ग की सहानुभूति बटोरती रही है,लेकिन अब उनका असली रंग सामने आ रहा है.अपने इस कृत्य पर बजाय माफ़ी मांगने के वो भविष्य में भी ऐसा करने की हुंकार भर रही है.निश्चित रूप से अब लालबहादुर जी जैसे नेता ओझल हो गये है, लेकिन राजनीतिज्ञों में ऐसा नैतिक पतन शोचनीय है.केंद्र सरकार व महामहिम राष्ट्रपति जी से गुजारिश है कि वो इस मामले में हस्तक्षेप करें.
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